Saturday 8 October 2011

अभिलाषा का रथ... (गीत)

अभिलाषा का रथ भी जाने कहाँ-कहाँ तक जाता,
कभी भटकता जंगल-जंगल, कभी गगन हो आता।

रिमझिम बारिश के मौसम में पहली बार मिले थे
मन की बातें कहनी चाहीं, लेकिन होंठ सिले थे,
नीरवता ने बीच हमारे डाला अपना डेरा
बस आँखों में लिखे संदेशे होकर मौन पढ़े थे,
आज अकेला गुमसुम-व्याकुल बैठा नीर बहाता
कैसे ढूँढ़ँू तुमको प्रियतम ! समझ न कुछ भी आता।

बस्ती-बस्ती, डगर-डगर पे गीत विरह के गाये
आशाओं की हर देहरी पर मैंने दीप जलाये,
पर्वत-घाटी, उपवन-मरुथल कहाँ नहीं ढूँढ़ा था
कहा निशाकर से भी मैंने जाकर उसे बताये,
धूमिल हो गई सब आशाएँ अब तो जग भरमाता
आन मिलो तुम प्राणप्रिय अब मेरा मन घबराता!

पीड़ाओं ने ऐसा बाँधा, मैं चीखा ना रोया
प्रेमनगर की गली-गली में गहन अँधेरा सोया, 
भटक रहा था मैं बादल-सा राह मिली ना कोई
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी पर चलता-चलता खोया,
डाली-डाली सुमन खिले थे, मन फिर भी सकुचाता
बिधना ऐसा भाग लिखा था, खुद को मैं समझाता।